सोमवार, 22 जून 2009

तीन ग़ज़लें /प्रसन्न वदन चतुर्वेदी

"आज की ग़ज़ल" में द्विजेन्द्र ’द्विज’ की एक ग़ज़ल की पंक्ति-"सात समन्दर पार का सपना सपना ही रह जाता है" पर आधारित ग़ज़ल लिखने की प्रतियोगिता हो रही है,मैं उसी बहर में उसी ग़ज़ल पर आधारित ये तीन ग़ज़लें प्रस्तुत कर रहा हूँ ,ये ग़ज़लें कैसी हैं ये आपको तय करना है.........

मुफलिस के संसार का सपना सपना ही रह जाता है।  

बंगला,मोटरकार का सपना सपना ही रह जाता है।  

रोटी-दाल में खर्च हुई है उमर हमारी ये सारी,  

इससे इतर विचार का सपना सपना ही रह जाता है।  

गाँवों से तो लोग हमेशा शहरों में आ जाते हैं,  

सात समन्दर पार का सपना सपना ही रह जाता है।  

कोल्हू के बैलों के जैसे लोग शहर में जुतते हैं, 

फ़ुरसत के व्यवहार का सपना सपना ही रह जाता है।  

बिक जाते हैं खेत-बगीचे शहरों में बसते-बसते,  

वापस उस आधार का सपना सपना ही रह जाता है।  

पैसा तो मिलता है सात समुन्दर पार के देशों में,  

लेकिन सच्चे प्यार का सपना सपना ही रह जाता है।

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सात समुन्दर पार का सपना सपना ही रह जाता है।  

आखिर में तो हासिल सिर्फ़ तड़पना ही रह जाता है।  

बाग-बगीचे बिकते-बिकते कंगाली आ जाती है,  

लेके कटोरा नाम प्रभु का जपना ही रह जाता है।  

सोच समझकर काम किया तो सब अच्छा होगा वरना,  

आखिर में बस रोना और कलपना ही रह जाता है।  

दौलत खत्म हुई तो कोई साथ नहीं फिर देता है,  

पूरी दुनिया में तनहा दिल अपना ही रह जाता है। 

 रोज़ किताबें लिखते हैं वो क्या लिखते मालूम नहीं,  

कैसे लेखक जिनका मक़सद छपना ही रह जाता है।  

ऊँचे-ऊँचे पद पर बैठे अधिकारी और ये मंत्री,  

लक्ष्य कहो क्यों उनका सिर्फ हड़पना ही रह जाता है।  

दुख से उबर जाऊँगा लेकिन प्रश्न मुझे ये मथता है,  

सोने की किस्मत में क्योंकर तपना ही रह जाता है। 

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पूरे जीवन इंसा अच्छे काम से शोहरत पाता है।  

भूल अगर इक हो जाये तो पल में नाम गँवाता है।  

खूब कबूतरबाज़ी होती बिक जाते हैं घर फिर भी,  

सात समुन्दर पार का सपना सपना ही रह जाता है।  

गाँव-शहर से हटकर जो परदेश चला जाता है वो, 

अपने मिट्टी की खुशबू की यादें भी ले जाता है।  

आइस-बाइस,ओक्का-बोक्का,ओल्हा-पाती भूल गये, 

शहरों में अब बचपन को बस बल्ला-गेंद ही भाता है।  

पेड़ जड़ों से कट जाये तो कैसे फल दे सकता है,  

बस इन्सान यँहा है ऐसा,ऐसा भी कर जाता है।

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4 टिप्‍पणियां:

  1. "आइस-बाइस,ओक्का-बोक्का,ओल्हा-पाती भूल गये,
    शहरों में अब बचपन को बस बल्ला-गेंद ही भाता है।"

    बहुत नजदीक हैं यह पंक्तियाँ मेरी संवेदना के । आभार ।

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  2. सराहनीय प्रयास.

    बधाई.

    चन्द्र मोहन गुप्त

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  3. कोल्हू के बैलों के जैसे लोग शहर में जुतते हैं,
    फ़ुरसत के व्यवहार का सपना सपना ही रह जाता है।


    बाग-बगीचे बिकते-बिकते कंगाली आ जाती है,
    लेके कटोरा नाम प्रभु का जपना ही रह जाता है।

    बाग-बगीचे बिकते-बिकते कंगाली आ जाती है,
    लेके कटोरा नाम प्रभु का जपना ही रह जाता है।

    bahut sundar hain teeno ghazalen. yah teen sher aapke mujhe bahut bhaaye.badhai!!

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