मित्रों ! दिल्ली की वारदातों और देश भर में ऐसी ही घटनाओं ने मुझे किसी नई रचना को जन्म देने से रोक रखा था क्योंकि मैं अपने हृदय की गहराइयों से स्वयं को बहुत ही दुखी महसूस कर रहा था। संयोग से मेरी बेटी को एक संस्था द्वारा आयोजित "बेटी बचाओ नशा छुड़ाओ" विषय पर कविता प्रतियोगिता में भाग लेने के लिये एक कविता की आवश्यकता पड़ी तो मेरे कलम खुद-ब-खुद लिखते गये और यह कविता बन गयी। बेटी ने भी प्रथम पुरस्कार पाकर इस कविता को सार्थक किया। आशा है आप को भी ये अच्छी लगेगी.....
सृष्टि ही मार डालोगे, तो होगी सर्जना फिर क्या ?
बचा लो बेटियाँ अपनी, पड़ेगा तड़पना फिर क्या ?
डरी-सहमी सी रहती है, नहीं ये कुछ भी कहती है,
मगर बेटों से ज्यादा पूरे अपने फर्ज़ करती है,
बढ़ाती वंश जो दुनियां में उसको मारना फिर क्या ?
बचा लो बेटियाँ अपनी, पड़ेगा तड़पना फिर क्या ?
अगर बेटी नहीं होगी, बहू तुम कैसे लाओगे,
बहन, माँ, दादी, नानी के, ये रिश्ते कैसे पाओगे,
बताओ माँ के ममता की करोगे कल्पना फिर क्या ?
बचा लो बेटियाँ अपनी, पड़ेगा तड़पना फिर क्या ?
जब तलक मायके में है, वहाँ की आन होती है,
और ससुराल जब जाती, वहाँ की शान होती है,
बेटियाँ दो कुलों की लाज रखती सोचना फिर क्या ?
बचा लो बेटियाँ अपनी, पड़ेगा तड़पना फिर क्या ?
कोई प्रतियोगिता हो टाप करती है तो बेटी ही,
किसी भी फर्ज़ से इन्साफ़ करती है तो बेटी ही,
ये है माँ- बाप के आँखों की पुतली फोड़ना फिर क्या ?
बचा लो बेटियाँ अपनी, पड़ेगा तड़पना फिर क्या ?
कई बेटे तो अपने फर्ज़ से ही ऊब जाते हैं,
कई बेटे हैं ऐसे जो नशे में डूब जाते हैं,
नशे से पुत्र बच जाए भ्रुणों से पुत्रियाँ फिर क्या ?
बचा लो बेटियाँ अपनी, पड़ेगा तड़पना फिर क्या ?