मंगलवार, 30 जून 2009

पास आओ तो बात बन जाए

कई दिनों बाद इस ब्लाग पर कोई रचना प्रस्तुत कर रहा हूँ।देर की वजह कुछ तो "समकालीन ग़ज़ल [पत्रिका] ","बनारस के कवि/शायर "में व्यस्तता थी;कुछ मौसम का भी असर था।दरअसल गर्म मौसम में नेट पर बैठने का मन नहीं करता ; परन्तु अब नई रचनाएँ पोस्ट कर रहा हूँ , आशा है आप का स्नेह हर रचना को मिलेगा ... यहाँ इस रचना के साथ मैं पुनः उपस्थित हूँ-

पास आओ तो बात बन जाए।
दिल मिलाओ तो बात बन जाए।

बात गम से अगर बिगड़ जाए,
मुस्कुराओ तो बात बन जाए।

बीच तेरे मेरे जुदाई है,
याद आओ तो बात बन जाए।

तुमको देखा नहीं कई दिन से,
आ भी जाओ तो बात बन जाए।

साथ मेरे वही मुहब्बत का,
गीत गाओ तो बात बन जाए।

नफरतों से 'अनघ' फ़िजा बिगड़े,
दिल लगाओ तो बात बन जाए।
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गीत/ हर रोज़ कुआँ खोदना

हर रोज़ कुआँ खोदना फ़िर प्यास बुझाना ,
ये ज़िन्दगी है ज़िन्दगी या एक सजा है।
जाना जहाँ से फिर वही वापस भी लौटना,
ये ज़िन्दगी है ज़िन्दगी या एक सजा है।

ज्यूं हर खुशी के घर का पता भूल गया हूँ,
मैं मुद्दतों से खुल के हंसना भूल गया हूँ,
रोना,तरसना छोटी-छोटी चीज के लिए,
ये ज़िन्दगी है ज़िन्दगी या एक सजा है।

हर सुबह को जाते हैं और शाम को आते,
हर रोज़ एक जैसा वक्त हम तो बिताते,
जीवन में नया कुछ नहीं इक बोझ सा ढोना,
ये ज़िन्दगी है ज़िन्दगी या एक सजा है।

बस पेट के लिये ही जिए जा रहे हैं हम,
कुछ और नहीं कर सके इस बात का है ग़म,
कुछ दे सके हम नया तो खुद ही सोचना,
ये ज़िन्दगी है ज़िन्दगी या एक सजा है।

सोमवार, 22 जून 2009

तीन ग़ज़लें /प्रसन्न वदन चतुर्वेदी

"आज की ग़ज़ल" में द्विजेन्द्र ’द्विज’ की एक ग़ज़ल की पंक्ति-"सात समन्दर पार का सपना सपना ही रह जाता है" पर आधारित ग़ज़ल लिखने की प्रतियोगिता हो रही है,मैं उसी बहर में उसी ग़ज़ल पर आधारित ये तीन ग़ज़लें प्रस्तुत कर रहा हूँ ,ये ग़ज़लें कैसी हैं ये आपको तय करना है.........

मुफलिस के संसार का सपना सपना ही रह जाता है।  

बंगला,मोटरकार का सपना सपना ही रह जाता है।  

रोटी-दाल में खर्च हुई है उमर हमारी ये सारी,  

इससे इतर विचार का सपना सपना ही रह जाता है।  

गाँवों से तो लोग हमेशा शहरों में आ जाते हैं,  

सात समन्दर पार का सपना सपना ही रह जाता है।  

कोल्हू के बैलों के जैसे लोग शहर में जुतते हैं, 

फ़ुरसत के व्यवहार का सपना सपना ही रह जाता है।  

बिक जाते हैं खेत-बगीचे शहरों में बसते-बसते,  

वापस उस आधार का सपना सपना ही रह जाता है।  

पैसा तो मिलता है सात समुन्दर पार के देशों में,  

लेकिन सच्चे प्यार का सपना सपना ही रह जाता है।

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सात समुन्दर पार का सपना सपना ही रह जाता है।  

आखिर में तो हासिल सिर्फ़ तड़पना ही रह जाता है।  

बाग-बगीचे बिकते-बिकते कंगाली आ जाती है,  

लेके कटोरा नाम प्रभु का जपना ही रह जाता है।  

सोच समझकर काम किया तो सब अच्छा होगा वरना,  

आखिर में बस रोना और कलपना ही रह जाता है।  

दौलत खत्म हुई तो कोई साथ नहीं फिर देता है,  

पूरी दुनिया में तनहा दिल अपना ही रह जाता है। 

 रोज़ किताबें लिखते हैं वो क्या लिखते मालूम नहीं,  

कैसे लेखक जिनका मक़सद छपना ही रह जाता है।  

ऊँचे-ऊँचे पद पर बैठे अधिकारी और ये मंत्री,  

लक्ष्य कहो क्यों उनका सिर्फ हड़पना ही रह जाता है।  

दुख से उबर जाऊँगा लेकिन प्रश्न मुझे ये मथता है,  

सोने की किस्मत में क्योंकर तपना ही रह जाता है। 

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पूरे जीवन इंसा अच्छे काम से शोहरत पाता है।  

भूल अगर इक हो जाये तो पल में नाम गँवाता है।  

खूब कबूतरबाज़ी होती बिक जाते हैं घर फिर भी,  

सात समुन्दर पार का सपना सपना ही रह जाता है।  

गाँव-शहर से हटकर जो परदेश चला जाता है वो, 

अपने मिट्टी की खुशबू की यादें भी ले जाता है।  

आइस-बाइस,ओक्का-बोक्का,ओल्हा-पाती भूल गये, 

शहरों में अब बचपन को बस बल्ला-गेंद ही भाता है।  

पेड़ जड़ों से कट जाये तो कैसे फल दे सकता है,  

बस इन्सान यँहा है ऐसा,ऐसा भी कर जाता है।

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सोमवार, 8 जून 2009

तेरी नाराज़गी का क्या कहना

तेरी नाराज़गी का क्या कहना ।
अपनी दीवानगी का क्या कहना ।

कट रही है तुझे मनाने में,
मेरी इस जिंदगी का क्या कहना ।

तेरी गलियों की खाक छान रहा,
मेरी आवारगी का क्या कहना ।

तेरी मुस्कान से भरी महफ़िल,
मेरी वीरानगी का क्या कहना ।

जान पर मेरे बन गई लेकिन,
तेरी इस दिल्लगी का क्या कहना ।

तूने ठुकरा दिया मुहब्बत को,,
तेरी इस सादगी का क्या कहना ।

कोशिशें सब ‘अनघ’ हुयी जाया,
ऐसी बेचारगी का क्या कहना ।

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आंधियाँ भी चले और दिया भी जले

आज मैं अपनी वह रचना आप के लिये प्रस्तुत कर रहा हूँ जिसे राग यमन में श्रीमती अर्चना शाही ने अपनी आवाज़ दी थी...आशा है आप इसे अवश्य पसन्द करेंगे.....

आंधियाँ भी चले और दिया भी जले ।
होगा कैसे भला आसमां के तले ।

अब भरोसा करें भी तो किस पर करें,
अब तो अपना ही साया हमें ही छले ।

दिन में आदर्श की बात हमसे करे,
वो बने भेड़िया ख़ुद जंहा दिन ढले ।

आवरण सा चढ़ा है सभी पर कोई,
और भीतर से सारे हुए खोखले ।

ज़िन्दगी की खुशी बांटने से बढ़े ,
तो सभी के दिलों में हैं क्यों फासले ।

कुछ बुरा कुछ भला है सभी को मिला ,
दूसरे की कोई बात फ़िर क्यों खले ।
 
भाइयों में भी अन्तर 'अनघ' दिख रहा,
एक ही कोख में जबकि दोनों पले |
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