रविवार, 26 अप्रैल 2009

आप की जब थी जरूरत आप ने धोखा दिया

आप की जब थी जरूरत, आप ने धोखा दिया।
हो गई रूसवा मुहब्बत , आप ने धोखा दिया।


बेवफ़ा होते हैं अक्सर, हुश्नवाले ये सभी;
जिन्दगी ने ली नसीहत, आप ने धोखा दिया।


खुद से ज्यादा आप पर मुझको भरोसा था कभी;
झूठ लगती है हकीकत, आप ने धोखा दिया।


दिल मे रहकर आप का ये दिल हमारा तोड़ना;
हम करें किससे शिकायत,आप ने धोखा दिया।


पार जो करता 'अनघ' माझी डुबाने क्यों लगा;
कर अमानत में खयानत,आप ने धोखा दिया।

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हास्यगीत/जोरू का गुलाम

भयवश नहीं परिस्थितिवश मैं करता हूँ सब काम।
फ़िर भी लोग मुझे कहते हैं जोरू का गुलाम.......।

सुबह अगर बीबी सोई हो, चाय बनाना ही होगा;
बनी चाय जब पीने को तब उसे जगाना ही होगा;
चाय बनाना शौक है मेरा हो सुबह या शाम.......
फ़िर भी लोग मुझे कहते हैं जोरू का गुलाम.......।

मूड नहीं अच्छा बीबी का फ़िर पति का फ़र्ज है क्या;
बना ही लेंगे खाना भी हम आखिर इसमें हर्ज है क्या;
इसी तरह अपनी बीबी को देता हूँ आराम.....
फ़िर भी लोग मुझे कहते हैं जोरू का गुलाम.......।

वो मेरी अर्धांगिनी है इसमें कोई क्या शक है;
इसीलिये तनख्वाह पे मेरे केवल उसका ही हक है;
मेरा काम कमाना है बस खर्चा उसका काम.....
फ़िर भी लोग मुझे कहते हैं जोरू का गुलाम.......।

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बुधवार, 22 अप्रैल 2009

पटरी से की-बोर्ड तक/ प्रसन्न वदन चतुर्वेदी


सोच रहा हूँ कि कहाँ से शुरुआत करूँ।चलिए ब्लाग से ही शुरु करता हूँ।मुझे याद है कि मैं कभी दवात की सहायता से लकडी़ की पटरी पर लिखा करता था।हालांकि ज्यादा दिन ये सिलसिला नही चला था पर कुछ दिन की वो मेहनत बहुत याद आती है।पटरी को बैटरी की कालिख से रंगना,उसे रगड़-रगड़ कर चमकाना,दवात में दुधिया घोलकर उससे लिखना,वो नरकट की कलम......नई पीढी़ ने तो शायद इसके बारे में सुना भी नही हो।
फ़िर स्याही और दवात का लम्बा दौर चला।धीरे धीरे उनका स्थान फ़ाउन्टेन पेन ने ले लिया।मुझे बखूबी याद है कि उस समय हमको बाल पेन से दूर रहने की सलाह दी जाती थी, और कलम दवात के प्रयोग पर जोर दिया जाता था ताकि लिखावट बने।यही नहीं,ये भी कहा जाता था कि यदि बाल पेन{डाट पेन}से लिखा तो परीक्षा में नम्बर नहीं मिलेगा।बाप रे..........वहाँ से मैं कहाँ आ गया ? पटरी से की-बोर्ड तक..........कब आ गया?पता ही नही चला और इतना समय बीत गया...क्या ये वक्त इतनी द्रुत गति से भाग रहा है?
जी हाँ ....भाग तो रहा है पर कुछ नया दे भी तो रहा है।वो स्कूल के दोस्त,फ़िर कालेज के मित्र और अब ब्लाग की दुनिया के इतने प्यारे प्यारे मित्र,शुभेच्छु जो मात्र दिखावे के मित्र नही हैं....उनमें आप की खूबियों पर तारीफ़ करना भी आता है , तो आप की कमियों पर लताड़ लगाना भी।ये वो वास्तविक दोस्त हैं जो सिर्फ़ कहने को नही हैं बल्कि वैसे हैं जैसा उन्हें वास्तव में होना चाहिये।मैं आप सभी ब्लाग मित्रों का बहुत आभारी हूँ जिन्होनें इस एक नयी दुनिया को आबाद कर रक्खा है।मैं इस दुनिया में देर से ही आया पर मैं आया ,मुझे इस बात की बहुत ही ज्यादा खुशी है।इसीलिये तो इच्छा हुई कि आप से कुछ मन की बात कहा भी जाय और मैने ये ब्लाग बना डाला।पर मैं अपने सभी ब्लाग-मित्रों से ये जरूर कहूँगा.....

ना कभी ऐसी कयामत करना ।
दोस्त बनकर तू दगा मत करना।


पूरी ग़ज़ल मेरे ब्लॉग "मेरी गज़लें मेरे गीत"  पर पढ़ें ...
आज के लिए इतना ही........

सोमवार, 20 अप्रैल 2009

गीत/प्रसन्नवदन चतुर्वेदी/मैं क्यूँ औरो के गीत लिखूं

ये गीत आप के सामने प्रस्तुत है जो मुझे बहुत प्रिय है ,देंखू आप को कैसा लगता है ......  

मैं क्यों औरों के गीत लिखूँ , क्यूँ नारी का श्रृंगार लिखूँ । 

मैं क्यूँ ना अपनी ग़ज़लों में अपने गीतों में प्यार लिखूँ । 

 

क्यूँ राजाओं की गाथाएं , मेरी रचनाओं में आएं; 

व्यभिचार,छल,कपट और युद्ध की बातें कवि क्योंकर गाए; 

सत्तालोलुप,कामी को क्यूँ मैं ईश्वर का अवतार लिखूँ.......  

 

सुन्दर चेहरा, काली आँखें,होठों की लाली क्या लिखना; 

सबमें होती हैं जो बातें वो, बात निराली क्या लिखना; 

मैं क्यूँ नारी के अंगो का अश्लील भरा विस्तार लिखूँ........ 

 

ये ठंडी हवा,बादल,पर्वत, ये बहती नदिया, ये सागर; 

ईश्वर ने दिया है जो उनमें है प्रेम का कद सबसे ऊपर; 

मेरी इच्छा है जीवन भर ये प्रकृति का उपहार लिखूँ......

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शनिवार, 18 अप्रैल 2009

तुमसे कोई गिला नही है

बी०म्यूज० के दौरान कुछ जब कोई नया राग सीखता था,तो प्रयास करता था कि उस राग पर कोई रचना लिखूँ।यह उसी का परिणाम है। राग शुद्ध कल्याण में बनायी इसकी धुन मुझे बहुत प्रिय है,रचना तो पसन्द है ही। अब आप को यह कैसी लगती है,ये देखना है.......

  

तुमसे कोई गिला नहीं है।
प्यार हमेशा मिला नहीं है।

कांटे रहते उगे चमन में,
फूल हमेशा खिला नहीं है।

जिसको मंज़िल मिले हमेशा,
ऐसा हर काफ़िला नहीं है।

होता आया कई सदी से,,
ये पहला सिलसिला नहीं है।

बस अनचाही मिली हमें शय,
जो चाहा वो मिला नहीं है।

जब तक मर्जी नहीं है रब की,
पत्ता तक इक नहीं हिला है।


नाजुक है दिल ‘अनघ’ हमारा,
ये पत्थर का किला नहीं है।

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