न्यायालय में न्याय नहीं है |
दूजा और उपाय नहीं है |
मत बाँधो इसको खूंटे से,
बेटी है ये गाय नहीं है |
मोमबत्तियां जला रहे हैं,
न्याय भरा समुदाय नहीं है |
निर्भयता से बेटी रह ले,
ऐसी एक सराय नहीं है |
नेताओं की पुस्तक में क्यों,
सच जैसा अध्याय नहीं है |
दौलत नित बढ़ती पर कहते,
राजनीति व्यवसाय नहीं है |
खर्चे पर खर्चे करते हैं,
लेकिन कोई आय नहीं है |
सच, ईमान जहाँ सब सीखें,
जग में वो संकाय नहीं है |
अपराधी फल-फूल रहे हैं,
क्या अब लगती हाय नहीं है ?
जब अखबार नहीं; लगता है,
आज सुबह की चाय नहीं है |
जयचन्दों से देश भरा है,
कोई पन्ना-धाय नहीं है |
प्रतिभाओं का वंचित रहना,
क्या ये भी अन्याय नहीं है ?
तेरी-मेरी, इसकी-उसकी,
मिलती ‘अनघ’ क्यों राय नहीं है |
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सुंदर सराहनीय,यथार्थपूर्ण रचना ।
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन रचना आपने वो सब कह दिया जो सवाल हर किसी के मन में कभी न कभी जरूर उठता है! सच में बहुत ही शानदार, जानदार रचना!
जवाब देंहटाएंइन सवालों में हम और आप नहीं हैं सो इन सबका कोई जवाब नहीं हैं।
जवाब देंहटाएंयहां सब अपनी सोचता है हर इंसान यहां मतलवी है जेव कटे या गला
दुसरे का हमें कोई मतलव नहीं हैं।
रचना सटीक एवं सार्थक !
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंक्या बात है! तारीफ़ के लिए मुनासिब अल्फ़ाज़ नहीं मिल रहे हैं। कभी सुना था - 'कलेजा चीर देगी बद्दुआ जो दिल से निकलेगी'। लेकिन आज का सच तो यही सवाल है जो आपने पूछा है - 'क्या अब लगती हाय नहीं है?' ये लफ़्ज़ तो दिल में कुछ ऐसे उतरे हैं कि कभी निकलने वाले नहीं लगते।
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